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ग़ज़ल
न मैं दरिया न मुझ में ज़ोम कोई बे-करानी का
कि मैं हूँ बुलबुले की शक्ल में एहसास पानी का
ख़ुर्शीद तलब
ग़ज़ल
नज़र को हाल-ए-दिल का तर्जुमाँ कहना ही पड़ता है
ख़मोशी को भी इक तर्ज़-ए-बयाँ कहना ही पड़ता है
सूफ़ी तबस्सुम
ग़ज़ल
ज़ेर-ओ-बम से साज़-ए-ख़िलक़त के जहाँ बनता गया
ये ज़मीं बनती गई ये आसमाँ बनता गया
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
असीर-ए-वहशत-ए-हिज्राँ को बद-गुमाँ न समझ
गराँ ये वक़्त सही मुझ को सरगिराँ न समझ
मौलवी सय्यद मुमताज़ अली
ग़ज़ल
असर नसीहत तुम्हारी मुझ पर है रुत सुहानी न कर सकेगी
समझता हूँ एहतियात इतनी मिरी जवानी न कर सकेगी
नाज़िम ज़रसिनर
ग़ज़ल
इंतिख़ाबी दौर में शो'ला-बयानी छोड़ दी
उस ने मुझ से हर तरह की बद-गुमानी छोड़ दी
बद्र-ए-आलम ख़ाँ आज़मी
ग़ज़ल
हदीस-ए-इश्क़-ओ-मोहब्बत का राज़दाँ हूँ मैं
जो मावरा-ए-तकल्लुम है वो बयाँ हूँ मैं
सूफ़ी ज़मज़म बिजनोरी
ग़ज़ल
ग़म-ए-दिल को बहार-ए-बे-ख़िज़ाँ कहना ही पड़ता है
मोहब्बत को हयात-ए-जाविदाँ कहना ही पड़ता है
सईद शहीदी
ग़ज़ल
बन के किस शान से बैठा सर-ए-मिंबर वाइ'ज़
नख़वत-ओ-उज्ब हयूला है तो पैकर वाइ'ज़